जगद् गुरू श्री 108 श्री मध्वाचार्य जी महाराज

श्री मध्वाचार्य जी महाराज 12 वीं शताबन्दी के महान सन्त हुए थे ये ब्रह्म सम्प्रदाय के प्रवर्तक माने जाते है तथा वैष्णवों के चारों सम्प्रदायों में से प्रधान सम्प्रदाय है इनका जन्म दक्षिण भारत में तुलुब देष के वेलीग्राम में मधिजी भट्ट (श्री नारायण जी भट्ट) नाम तुलु ब्राह्मण के घर संवत् 1295 माघ शुल्क सत्यमी (के.सी. वैष्णव के अनुसार) को हुआ था इनकी माता का नाम बेदवती था, इनके बचपन का नाम वासुदेव (भीम) था इनके लिए खिा गया कि ये पवन देवता की आज्ञा से धर्मपालन के लिए संसार में आए थे आपने बचपन में अनन्तेष्वर मठ में वेदों का अध्ययन किया व नौ वर्ष की आयु में सन्यास ग्रहरण कर लिया । प्रारम्भ में ये जगद् गुरू शंकराचार्य जी के षिष्य बन गए व इनका मध्व नाम दिया गया ।

इन्होंने छोटी सी उम्र में ‘गीता भाष्य‘ का निर्माण कर बद्रिकाश्रम में वेदव्यास जी को अर्पण किया जिससे खुष होकर वेदव्यास जी ने इनकंे राम व शालिग्राम की मूर्तियां दी जिनको इन्होंने सुबह्मण्य, उदीपी और मध्यतल के तीनों स्थानों में स्थापना की ।
‘सम्प्रदाय प्रदीपालोक‘ द्वारा श्री गदाधर मिश्र ने 1610 में लिखा कि जब शंकराचार्य अपने प्रचण्ड पांडित्य की धाक जमाते हुए दिग्विजय करते हुए दक्षिण देषस्त गोकर्ण क्षैत्र में पहुंचे , तब उन्होंने अपने स्मारक स्वरूप में भारत की चतुर्दिक सीमाओं पर चार पीठ स्थापित करने का अपने प्रधान षिष्य चतुष्ठय को आदेष दिया । जगद् गुरू शंकराचार्य ने अपने चारों षिष्यों को मायावाद-सप्तक्त अद्वैत सिद्वान्त षिक्षा सूत्र रहित एक दण्ड देकर सन्यास का उपदेष व धर्म प्रचार की आवष्यकता बतलाकर विदा किया ।

उपरोक्त चारों षिष्यों में मधु नामक एक षिष्य था । गुरू आज्ञानुसार जब वह रात्रि में सोया तब भगवान श्री राम ने स्वप्न में दर्षन देकर उसे अपने कतग्वय का बोध कराते हुए कहा ‘‘माधो तुम तो मेरे सेवक अनुमार के वंषावतार हो व वैष्णव धर्मान्तर्गत सेव्य सेवक स्वरूप भक्ति के प्रचारार्थ भूतल पर तुम्हारा अवतार हुआ है अतः इस शंकर के मायावाद का त्याग कर तुम्हें भक्ति के सिद्वान्तों का प्रचार करना चाहिए । प्रभु की आज्ञा षिषेधार्य कर मधु ने भक्ति मग के प्रचार की प्रतिज्ञा कर शंकरचार्य के षिष्यत्व का त्याग कर दिया व स्वयं आचार्य बन भक्तिमार्ग के प्रचार में लग गए ।

सिद्वान्त - मध्वाचार्य जी ने अपने सम्प्रदाय की गुरू परम्परा में लोक पितामह ब्रह्माजी को गुरू मान कर अपने सिद्वान्त को ‘‘द्वैताद्वेत‘‘ नाम से प्रख्यात किया । भक्ति के महा प्रचारक होने के कारण वे वैष्ण्प धर्म के सामान्य आचार्य माने जाने लगे उनके सम्प्रदाय द्वारा भारत में भक्ति का अधिक प्रचार हुआ । इस सम्प्रदाय को मानने वाले एक विष्णु भगवान को ही परमेष्वर, जगत सष्टा व स्वतंत्र मानते है और विष्णु को स्वतंत्र परमेष्वर और जीव को परतंत्र सेवक और जगत को उसकी रचना मानते है इसलिए यह मत द्वैतवादी प्रसिद्ध हुआ । ये अन्त्यज जातियों को उपदेष देते थे परन्तु सन्यास का अधिकार ब्राह्मण का ही मानते थे ।

वैष्णव धर्म प्रचार - मध्वाचार्य जी ने पहले उत्तर भारत में वैष्णव धर्म का प्रचार किया फिर दक्षिण भारत में सभी स्थानों पर जाकर भक्ति मग का प्रचार किया व कर्नाटक राज्य में 8 मठ स्थापित किये अपना सम्प्रदाय पीछ रजतपीठपुर (उडुपी) जिला मंगलूर कर्नाटक में बनाया । इनके सर्मथक नाक के उपर गोपीचन्दन की दो सीधी रेखाऐं खींचते है व बीच में काली रेखा खींचते है ।

शास्त्र रचना- आपने प्रारम्भ में ‘ब्रह्म सूत्र‘ व भागवत गीता पर भाष्य खिा व सभी प्रमुख उपनिषदों में ‘‘द्वैव वाद‘ का ही प्रतिपादन किया तथा अपने जीवन काल में लगभग 37 ग्रन्थों की रचना की जिनमें ‘प्रस्थानन्नयी‘ पर भाष्य, सूत्र भाष्य, ऋग भाष्य, दषोपनिषद भाष्य, अनुवेन्दान्त, रस प्रकरण आदि प्रमुख है।

षिष्य - मध्वाचार्य जी ने कई षिष्य बनाय जिनमें 1. सत्यतीर्थ जी, 2. श्री शोभन जी भट्ट 3. श्री त्रिविक्रम जी 4. श्री रामभ्रद जी, 5. विष्णुतीर्थ, 6. श्री गोविन्द जी शास्त्री, 7. पद्मनाभाचार्य जी, 8. जयतीर्थाचार्य, 9. व्यासराज स्वामी, 10. श्री रामाचार्य जी 11. श्री राघवेन्द्र स्वामी, 12. श्री विदेह तीर्थ जी आदि कई षिष्यों ने वैष्णव धर्म का प्रचार किया ।

द्वारे - श्री मध्याचार्य जी सम्प्रदाय के वर्तमान द्वारा एक पष्चिम बंगाल में नदिया शान्तिपुर के नित्यानंदी द्वारे में श्री माधवेन्द्र पुरी जी स्थित है व दुसरा वृन्दावन (मथुरा) के श्यामानन्दी द्वार में हृदयचेत्यन जी स्थित है ।

जगद् गुरू श्री मध्वाचार्य जी महाराज ने अपने भक्ति सिद्वान्तों व उपदेषों से पूरे भारत के वैष्णव भक्तों को लाभान्वित करते हुए 78 वर्ष की आयु प्राप्त कर अपने नष्वर शरीर को वि.स. 1373 मेें सरिदन्तर स्थान पर छोड़ दिया ।

संकलनकर्ता

हरी दास निम्बार्क
53, राजा राम नगर, पूंजला, जोधपुर

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